माफ़ करें दोस्तों, लगता है ईश्वर की अनुकम्पा काफी दिनों बाद झोली में आई है अत: 'कीबोर्ड ' पर अंगुलियाँ यूँही चलने लगी अन्यथा तो आलस ने ही घर कर लिया था -मेरे मन में, बुद्धि में और विचार शक्ति में।
खैर छोडिये, आप सब कुशल हैं ये आशा है मेरी ।आपका ज्यादा समय नहीं लुंगी aऔर aapkआपकी पहली जम्हाई से पूर्व कुछ न कुछ अच्छा तो लिख ही दूंगी ।
छुट्टियाँ ख़त्म होने को आई हैं । न जाने 2 महीने कहाँ गुम हो गए । न जाने कैसे ये समय ऐसे बीत गया । मैं पूरे दावे के साथ कह सकती हूँ कि यदि आप विद्यार्थी हैं या रह चुके हैं......ज़रा रुकिए.....1 मिनट .....यदि आप "मेरे" जैसे विद्यार्थी हैं या रह चुके हैं तो निश्चय ही ऐसा अनुभव आपके लिए तनिक भी नया नहीं है । परीक्षादिवस कुछ ऐसे बीतते थे की मानो अध्ययन हेतु अवकाश अथवा "प्रेप लीव" आज शुरू और आज ही ख़त्म हो जाते थे । और ये छुट्टियाँ ज्यों समाप्ति की ओर अग्रसर हो रही हैं, इनकी गति भी कुछ वैसी ही प्रतीत हो रही है।
खैर, वादा किया है आपको पढ़ते पढ़ते "जम्हाई " आये उससे पूर्व मुद्दे की बात का एक अक्षर तो लिख ही दूंगी
मेरे महाविद्यालय के नियम कुछ यूं कड़े हैं कि परीक्षा के आरम्भ से ले कर समाप्ति का सफ़र अवैध पगडंडियों से तय करने का अवसर ही प्राप्त नहीं होता । या शायद अवसर प्राप्त तो होते हैं पर अंतरात्मा की अनुमति नहीं होती -शायद यही है बुद्धि की प्रौढ़ता -"मैच्योरिटी " । यदि ऐसा है तो विद्यालय के दिनों से ही इस प्रौढ़ता ने मेरी बुद्धि में घर कर लिया था ।
स्वछंद विचारों के इस माहौल में सत्य भी समान भागीदार है -आखिरकार स्वछंदता सच्चाई से रूबरू होने का ही तो एक माध्यम है । और सच्चाई स्वयं से जुड़ी हो तो पाठको के लिए कम कष्टकारी होती है -
आज मैंने अपनी अंत:करण से जुडी दो उलझनों के विषय में लिखने का इरादा
किया है- पहली उलझन भूत है-अर्थात उसका निपटारा हो चूका था..कई वर्ष
पूर्व, और उसी अनुभव से उत्त्पन एक एहसास ने मुझे आज एक और नयी उलझन से निपटने में सहायता की ।
आठवी कक्षा की बात है, सामाजिक अध्ययन की परीक्षा में मुझे अक्सर बगले झाकने की इच्छा होती थी- कुछ उत्तर याद रहते थे तो वे ज्यों के त्यों उत्तर पत्रिका पर लिख दिया करती थी परन्तु कुछ तारीखें बुद्धि की सीमाओं से परें थी-और इसीलिए संभवत: ऐसी इच्छा जन्म लेती थी-आप मानें न मानें . कई बार मेरे ऐसे प्रयत्न सफल भी हुए- पर क्या ऐसे प्रयास का कोई फल होता? प्रथम तीन सत्रों की परीक्षा कुछ ऐसे ही कटी की अचानक ही तीसरे सत्र की परीक्षा के दौरान न जाने क्या अनुभूति हुई- लगा कि अब अगर एक और जबाब किसी से पूछा तो शायद घर जाकर खुद से नज़रें नहीं मिला पाऊँगी; कि यदि एक और बार नज़र प्रशन पत्र से हटकर कहीं और गईं तो अनर्थ हो जायेगा-मानो ज़िन्दगी भर अंतरात्मा को कोसती रहूंगी।
और तब से जो स्वावलंबन का संकल्प लिया तो फिर सदा ही बुद्धि के कोनों को खोद कर ही उत्तर के महासागर को पनाह देती आई हूँ - तभी ये जाना, कि ज़रूरी नहीं की आपको हर कर्त्तव्य हेतु टोका जाये, कुछ कहा जाये; जब अंत:करण से आवाज़ आए , तब उस आवाज़ में दोष की आशंका कम ही होती है । और इसी को शायद विवेक कहते हैं।
आज उसी विवेकपूर्ण निर्णय पर गर्व होता है मुझे और यही लगता है की कभी कभी, जब मुझे स्वयं भी कभी किसी आयु में छोटे व्यक्ति/बालक पर क्रोध आये, तब मुझे उनपर ही छोड़ देना चाहिए। कदाचित तो उन्हें भी अनुभूति होगी-और अगर नहीं, तो उनके लिए वो ही सही होगा जो वे कर रहे हैं।...वयस्कों के लिए अनिवार्य है की वे कनिष्ठों का मार्गदर्शन करें, पर जबतक बात सीमा में है, थोडा उन्हें भी स्वछंद छोड़ा जा सकता है।..क्यूँ?
आपको यह सब बता कर मन थोडा हल्का हो गया है । अब कम से कम, मुझे गुस्सा शायद थोडा कम आये -चाहे कॉलेज के जुनियर्स हों या और कोई, अगर मेरी बात का असर नहीं होता, तो इसकी सज़ा मैं स्वयं को नहीं दूँगी-अपना खून नहीं जलाऊँगी -क्योंकि क्या पता, मेरी कुछ बातों से दूसरों की भावनाओं को भी ठेस पहुँचती हो--हमेशा अपनी दृष्टि से नहीं देखना चाहिए न!