Wednesday, August 15, 2018

एक अरसे बाद

तो यूं कहूँ कि लगभग छह वर्ष बाद, वही उथलपुथल मन में दोबारा मची और फिर से कुछ बोल जाने को मेरी उंगलियां चंचला उठीं | 

"बोल, के लब आज़ाद हैं तेरे, बोल, ज़बां अबतक तेरी है |"

फैज़ साहब ने ये कुछ पंक्तियों में मेरे जैसों की लालसा को व्यक्त कर दिया । बोल । 

बोलना मेरा परम धर्म है । मुझे बोलने से जितना प्यार है उतना शायद ही किसी चीज़ से है। और यही कारण है कि अधिकतर वाचन प्रवचन की प्रतियोगिताओं में आप मुझे कुछ न कुछ बोलते-बकते पा सकते हैं । 
महाविद्यालय प्रौढ़-जीवन का बचपन ही होता है । अत: वहां मैं जहां भी बन पड़ता था, ध्वनि-विस्तारक-यन्त्र को पकड़ अपने आज़ाद लबों को जनता तक पहुंचाने का कार्य सिद्ध करने लगती थी । 

अब भी करती हूं पर वहीं ही जहां मन करे । आश्चर्यजनक है कि अब कोई ऐसी जगह भी है जहां मन ’नहीं’ करे बोलने को । जहां मैं सोचूं कि नहीं भी बोलना है । 

तो एक अरसे बाद यदि कुछ भी बदला है, तो वह है, ’जगह देखना’ :( 

खैर, यह जीवन है इस जीवन का, यही है, यही है, यही है... 


Wednesday, November 14, 2012

एहसास ...अनुभूति!



गत कुछ दिनों में मेरे साथ कुछ ऐसी घटनाएं घटी जिन्होंने मुझे जीने की एक नयी दिशा दी।
अब भाई, हूँ तो इंसान ही, इसीलिए जानती हूँ की इस नयी दिशा में यूँ अकस्मात् ही चल देना नामुकिन है, पर प्रयास तो कर ही सकती हूँ।

वाद विवाद प्रतियोगिता "सही सलामत" समापन को प्राप्त करवा दी गयी .
जी।  सही सलामत अर्थात  बिना किसी झगडे फसाद के . आपने यदि हमें  "तरंग" के दिनों में देखो हो तो शायद समझेंगे की मैं ऐसा क्यूँ कह रही हूँ । खैर, हमारी अध्यक्ष एवं संपूर्ण वाद विवाद समिति को बधाई!
 यह तो हुई एक अच्छी बात ।

दूसरी मनोहारी सूचना मेरे हृदयगत परिवर्तन के विषय में है .
आदरणीय आंग सां सू ची, बरमा के एनएलडी की सदस्य हमारे महाविद्यालय में पधारेंगी और हम सब ही उनके आगमन से अत्यधिक प्रसन्न व उत्साहित हैं . मैं भी उस उनके आगमन पर होने वाले भव्य आयोजन का एक हिस्सा हूँ - सामूहिक गान की एक गायिका के रूप में!

जैसा कि  मैंने अपने एक और ब्लौग में लिखा है, मुझे गायन समूह में काफी पिछला स्थल मिला था और मैं थोड़ी सी दु:खी थी। मेरे मन में मात्र यह विचार था कि  इतने पीछे से गायेंगे तो ख़ाक सुनाई देगा ...उससे भी ज्यादा, चिंता यह थी की देखेगा कोई कैसे, की हम भी हैं गुट में! पर आज, मैंने स्वयं के अलावा उन अन्य लोगों को भी सभागार में देखा जो बिना किसी स्वार्थ के लगे हुए थे आयोजन को सफल बनाने के प्रयासों में । उन के प्रयास व उत्साह को देख के लगा की मानो दुनिया के सबसे बड़े बेवकूफ ठेहरे  हम, जो चकाचौंध की दौड़ में भूल ही गए कि  आयोजन मेरा नहीं पूरे महाविद्यालय का है - प्रत्येक व्यक्ति का उत्साह आवश्यक है - मनो या न मानो!

अत: मैंने भी यह तय किया है कि  सीखना तो पड़ेगा कुछ इन जाबांज लोगों से---नि:स्वार्थ भाव से सामूहिक हित सोचना कोई इनसे सीखे! और मैं भी पीछे खड़े होकर इस आयोजन का भाग ही बन रही हूँ-----इस में कोई बुराई  नहीं , कतई  नहीं!

Friday, July 20, 2012

परिवर्तन

माफ़ करें  दोस्तों, लगता है ईश्वर की अनुकम्पा   काफी दिनों बाद झोली में आई है अत: 'कीबोर्ड ' पर अंगुलियाँ यूँही चलने लगी अन्यथा तो आलस ने ही घर कर लिया था -मेरे मन में,  बुद्धि में  और विचार शक्ति में।

खैर छोडिये, आप सब कुशल हैं ये आशा है मेरी ।आपका ज्यादा समय नहीं लुंगी aऔर aapkआपकी पहली जम्हाई से पूर्व कुछ न कुछ अच्छा तो लिख ही दूंगी ।
छुट्टियाँ ख़त्म होने को आई हैं । न जाने 2 महीने कहाँ गुम हो गए । न जाने कैसे ये समय ऐसे बीत गया । मैं पूरे दावे के साथ कह सकती हूँ कि  यदि आप विद्यार्थी हैं या रह चुके हैं......ज़रा रुकिए.....1 मिनट .....यदि आप "मेरे" जैसे विद्यार्थी हैं या रह चुके हैं तो निश्चय ही ऐसा अनुभव आपके लिए तनिक भी नया नहीं है । परीक्षादिवस कुछ ऐसे बीतते थे की मानो अध्ययन हेतु अवकाश अथवा "प्रेप लीव" आज शुरू और आज ही ख़त्म हो जाते थे । और ये छुट्टियाँ ज्यों समाप्ति की ओर  अग्रसर हो रही हैं, इनकी गति भी कुछ वैसी ही प्रतीत हो रही है।

खैर, वादा किया है आपको पढ़ते पढ़ते "जम्हाई " आये उससे पूर्व मुद्दे की बात का एक अक्षर तो लिख ही दूंगी
मेरे महाविद्यालय के नियम कुछ यूं कड़े हैं कि  परीक्षा के आरम्भ से ले कर समाप्ति का सफ़र अवैध  पगडंडियों से तय करने का अवसर ही प्राप्त नहीं होता । या शायद अवसर प्राप्त तो होते हैं पर अंतरात्मा की अनुमति नहीं होती -शायद यही है बुद्धि की प्रौढ़ता -"मैच्योरिटी " । यदि ऐसा है तो विद्यालय के दिनों से ही इस प्रौढ़ता ने मेरी बुद्धि में घर कर लिया था ।


स्वछंद विचारों के इस माहौल  में सत्य भी समान भागीदार है -आखिरकार स्वछंदता सच्चाई से रूबरू होने  का ही तो एक माध्यम है । और सच्चाई स्वयं से जुड़ी हो तो पाठको के लिए कम कष्टकारी होती है -

आज मैंने अपनी अंत:करण से जुडी दो उलझनों के विषय में लिखने का इरादा किया है- पहली उलझन भूत है-अर्थात उसका निपटारा हो चूका था..कई वर्ष पूर्व, और उसी अनुभव से उत्त्पन एक एहसास ने मुझे आज एक और नयी उलझन से निपटने  में सहायता की ।


आठवी कक्षा की बात है, सामाजिक अध्ययन की परीक्षा में मुझे अक्सर बगले झाकने की इच्छा होती थी- कुछ उत्तर याद रहते थे तो वे ज्यों के त्यों उत्तर पत्रिका पर लिख दिया करती थी परन्तु कुछ तारीखें बुद्धि की सीमाओं से  परें थी-और इसीलिए संभवत: ऐसी इच्छा जन्म लेती थी-आप मानें न मानें . कई बार  मेरे ऐसे प्रयत्न सफल भी हुए- पर क्या ऐसे प्रयास का कोई फल होता? प्रथम तीन सत्रों की परीक्षा कुछ ऐसे ही कटी की अचानक ही तीसरे सत्र की परीक्षा  के दौरान न जाने क्या अनुभूति हुई- लगा कि  अब अगर एक और जबाब किसी से पूछा तो शायद घर जाकर खुद से नज़रें नहीं मिला पाऊँगी; कि  यदि एक और बार नज़र प्रशन पत्र से हटकर कहीं और गईं  तो अनर्थ हो जायेगा-मानो ज़िन्दगी भर अंतरात्मा को कोसती रहूंगी।

और तब से जो स्वावलंबन का संकल्प लिया तो फिर सदा ही बुद्धि के कोनों  को खोद कर ही उत्तर के महासागर को पनाह देती आई हूँ - तभी ये जाना, कि ज़रूरी नहीं की आपको हर कर्त्तव्य  हेतु टोका जाये, कुछ कहा  जाये;  जब अंत:करण से आवाज़ आए , तब उस आवाज़ में दोष की आशंका कम ही होती है । और इसी को शायद विवेक कहते हैं।

आज उसी विवेकपूर्ण निर्णय पर गर्व होता है मुझे और यही लगता है की कभी कभी, जब मुझे स्वयं भी कभी किसी आयु में छोटे व्यक्ति/बालक पर क्रोध आये, तब मुझे उनपर ही छोड़ देना चाहिए। कदाचित  तो उन्हें भी अनुभूति होगी-और अगर नहीं, तो उनके लिए वो ही सही होगा जो वे कर रहे हैं।...वयस्कों के लिए अनिवार्य है की वे कनिष्ठों का मार्गदर्शन करें, पर जबतक बात सीमा में है, थोडा उन्हें भी स्वछंद छोड़ा जा सकता है।..क्यूँ?

आपको यह सब बता कर मन थोडा हल्का हो गया है । अब कम से कम, मुझे गुस्सा शायद थोडा कम आये -चाहे कॉलेज  के जुनियर्स  हों या और कोई, अगर मेरी  बात का असर नहीं होता, तो इसकी सज़ा मैं स्वयं को नहीं दूँगी-अपना खून  नहीं जलाऊँगी -क्योंकि क्या पता, मेरी कुछ बातों से दूसरों की भावनाओं को भी ठेस पहुँचती हो--हमेशा अपनी दृष्टि से नहीं देखना चाहिए न!

Friday, April 6, 2012

जब वह दिन आया ....और चला गया !

अरे ! मैंने लिखना आरम्भ कर दिया ! पुन: !

इसे इश्वर का आशीर्वाद कहिये या किसी ख़ास व्यक्ति की हृदयज दुआ कि मेरी उँगलियाँ इस 'की-बोर्ड ' पर पुन: लिखने को तत्पर हो गयी क्योंकि हाल ही में उत्पन्न कतिपय व्यस्तताओं के कारण यह कार्य सर्वथा असंभव ही प्रतीत हो रहा था ।
खैर, 'कॉलेज डे ' समापन के लम्हे गुज़ार चुका है  । वह वार्षिक  दिवस जिस धैर्य के साथ समीप आ रहा था उतनी ही तीव्रता के साथ गुज़र भी गया । मैंने सोचा भी नहीं था कि यह दिन इस प्रकार इतनी जल्दी ही ख़त्म हो जायेगा ।

सच बोलूं तो मैं स्वयं भी इस ज्ञान से अनभिज्ञ हूँ कि मैं इस दिन कि प्रतीक्षा इतनी तीव्रता से क्यों कर रही थी । एक दिन ही तो था । दोस्तों से मिलना, अच्छा खाना खाना , एक अच्छा सांस्कृतिक कार्यक्रम देखना और फिर रोज़ कि भांति घर आ जाना । इसमें कुछ ख़ास नया तो है नहीं -हाँ, एक अच्छा सांस्कृतिक कार्यक्रम भले ही हमारे महाविद्यालय के 'ई.सी.ऐ.' कलांशों का अनेक अवसरों पर एक महत्त्वपूर्ण भाग होता है तथापि रोजाना नहीं होता ;अतएव वह शायद कुछ 'नयेपन' से युक्त कहा जा सकता  है ।

फिर एक अनुभूति हुई ।

यह वह दिन था जिसके लिए न जाने कितने हफ़्तों से मैंने अपने गृह जनों से आने के लिए आग्रहपूर्वक निवेदन किया था । एक दिन चाहिए था जब 'एल.एस.आर' में मैं अपने लिए नहीं अपने परिवार के लिए जाऊं । यूं तो अक्सर ही एक सामान्य परिवार कि भांति हमारा बाहर जाना होता है, पर एक शिक्षा स्थल अपर , किसी विशेष प्रयोजन से जाना अलग ही बात है।
एक उत्साह था -विद्यालय में हर 'पी.टी.एम् मीटिंग' पर अभिभावक साथ होते हैं, पर यह अनुभव महाविद्यालय में संभव नहीं होता- सब बड़े हो चुके होते हैं; माता-पिता बच्चे के कॉलेज जाना स्वयं भी पसंद नहीं करते ।और शायद यही बात उन 'बच्चों' को कॉलेज के बारे में सबसे अच्छी लगती है ।ख्ह्म्म ! ख्ह्म्म!

पर मुझमें यह उत्साह था । हम सबका वहाँ जाना और उस अविस्मरणीय अनुभूति का आत्मसात करना सच में मेरे लिए बहुमूल्य सिद्ध हुआ । और फिर मन में वही चिंताएं और आशाएं भरी हैं...कि आने वाले कल के बारे में आखिर करना क्या है? पर लगता है जब 'वो लोग' मेरे साथ हैं, तो कुछ न कुछ रास्ता तो अवश्य निकल कर आयेगा । तब तक के लिए, वे यादें ही बहुत हैं जो मुझे अत्यंत ही प्रेरित करती हैं -उनकी; उनके साथ
:)




Thursday, March 8, 2012

तो आखिरकार !

पहला पोस्ट है दोस्तों! ज़रा उत्साह बढाएं !

जैसा कि बता ही दिया है लिखने की बड़ी इच्छा हो रही थी । स्मृति पटल पर अनेक विचार घर में पधारे हुए एक नवजात शिशु कि भांति उथल-पुथल सी मचा रहे थे- यह जान कर थोड़ी प्रसन्नता भी हुई कि पढाई लिखाई के इस व्यस्तता भरे युग में मुझमें अभी भी कुछ सोचने कि क्षमता शेष है ; तो वहीं इस चिंतन ने मुझे व्याकुल कर दिया कि लिखें तो आखिर लिखें क्या । अब विचारों को अक्षर रूप देना कोई कम कठिन कार्य नहीं है । महसूस होता है कि जिस इच्छा का ज़िक्र ऊपर किया है उस नन्ही सी इच्छा ने एक मीठा सा षड़यंत्र रचा था और अंतत: मुझे लिखने के लिए मजबूर कर ही दिया ।

खैर, भूमिका थोड़ी लम्बी हो गयी । माफ़ करें (नहीं भी करेंगे तो चलेगा ;)) । अच्छा लग रहा है एक नए एहसास की अनुभूति कर । अभी तो आरम्भ ही किया है । न जाने ये काफ़िला कितना लम्बा चलेगा । कभी नहीं सोचा था कि 'मैं' कभी भी कुछ लिख पाऊँगी । चलिए लिखा तो लिखा, कभी नहीं सोचा था कि एक सार्वजनिक माध्यम से अपने लेखों को दुनिया के समक्ष भी रख सकूँगी ।

पर दुनिया बदल रही है । इसीलिए शायद मेरे विचार भी । अच्छा है । लिखने का भी अभ्यास होना चाहिए ।
लिजीये-मन की मन मानी -कुछ क्षण पूर्व तक तो न जाने कल्पनाओं की क्या उड़ाने भर रहा था । "ये लिखेंगे...वो लिखेंगे.." पर अब वे साड़ी उड़ाने किंगफिशर  को सौंप चूका है शायद । अकस्मात् ही सब शून्य हो गया है ।
पर लिखने को बहुत कुछ है इस बात का दावा तो मैं पुतिन के चुनाव जीत के दावे से भी ज्यादा दृढ रूप से कर सकती हूँ ।

अभी रुक रही हूँ । पर यह सिलसिला नहीं रुकने वाला अब ।   चलती हूँ । ईश्वर की अनुकम्पा और आपकी इच्छा  रही तो आगे भी यूँ ही मिलते रहेंगे । कुछ गप-शप, कुछ गुफ़्तगु...यूँ ही कुछ अंदाज़ रहेगा। तब तक मिलके लिखते हैं...कुछ स्वच्छंद लफ्ज़ !

नमस्कार !